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Wednesday, September 23, 2009

कार्तिक शुक्ल एकादशी अथवा देव प्रबोधिनी एकादशी का महत्व

महाकवि कालिदास ने मेघदूत में यक्ष को प्राप्त शाप की अवधि के विषय में लिखा है - जब भगवान विष्णु अपनी शेषशय्या से उठेंगे, तब मेरे शाप का अंत होगा। हे प्रिये! इन चार मासों को तुम आंख मूंदकर व्यतीत कर लो। कालिदास की इन्हीं दो पंक्तियों के आधार पर उज्जैन में कालिदास समारोह प्रतिवर्ष देव प्रबोधिनी एकादशी के दिन होता है।
मेघदूत के उक्त कथन से यह तो स्पष्ट है कि महाकवि कालिदास के समय अर्थात ईसा पूर्व से ही कार्तिक शुक्ल एकादशी अथवा देव प्रबोधिनी एकादशी का महत्व है। वराहपुराण में लिखा है कि ब्रrा ने कुबेर को एकादशी दी और उसने (कुबेर ने) उसे उस व्यक्ति को दिया जो संयमित रहता है, शुद्ध करता है, केवल वही खाता है, जो पका हुआ नहीं है।
कुबेर प्रसन्न होने पर सब कुछ देते हैं। एक नारी का आख्यान लिखा है - वह अति झगड़ालू थी, अपने प्रेमी के विषय में सोचती थी और इस कारण वह अपने पति द्वारा निंदित हुई और पीटी भी गई। वह क्रोधित होकर बिना भोजन किए रात्रि भर रही। उपवास करने के कारण (जो जानबूझ कर या प्रसन्नतापूर्वक नहीं किया गया था, प्रत्युत क्रोधावेश में किया गया था) वह शुद्ध हो गयी। प्रसन्नतापूर्वक उपवास करने से मनुष्य को गर्हित वासनाओं से निवृत्ति मिलती है।
एकादशी व्रत के सामान्य महत्व के अतिरिक्त देव प्रबोधिनी एकादशी का विशेष सामाजिक महत्व है। वर्षाकाल के चार मासों में भारत के बहुत से भागों में प्राचीन काल में यातायात सुविधाएं नहीं थीं। इसलिए इस अवधि में विवाह निषिद्ध कर दिया गया। इसका एक और कारण यह है कि ये चार महीने खेती के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं और कृषि प्रधान देश भारत का किसान निश्चिंत होकर बिना किसी सामाजिक, धार्मिक दायित्व के इन चार महीनों में अपना कृषिकर्म कर सकता था।
इसलिए संभवत: यह कल्पना की गई कि इस अवधि में भगवान विष्णु शयन करते हैं। देव प्रबोधिनी एकादशी के दिन विशेष उत्सव मनाया जाता है। नए अन्न, मूल तथा फलों से भगवान विष्णु का पूजन किया जाता है और उन्हें प्रार्थनापूर्वक उठाया जाता है। यद्यपि आज शहरीकरण बढ़ गया है तथा जनसंख्या का एक बहुत बड़ा भाग नगरीय जीवन जी रहा है, किंतु भारत के प्रधान व्रत उत्सव, जिनमें देव प्रबोधिनी एकादशी भी शामिल है, आज भी मनाए जाते हैं।
राजबलि पांडे का यह मत है कि वैदिक काल में विष्णु सूर्य के ही एक स्वरूप थे। अत: ये दोनों एकादशियां सूर्य के मेघाच्छन्न और मेघ से मुक्त होने की प्रतीक भी हो सकती हैं। जैसाकि व्रतों के दिन होता है, देव प्रबोधिनी एकादशी के दिन भी लोग व्रत करते हैं और इन व्रतों के साथ बहुत-सा संयम भी जुड़ा होता है, जो व्यक्ति को आध्यात्मिक शक्ति प्रदान करता है। नारद पुराण में तो यह विधान किया गया है कि जो मानव आठ वर्ष से अधिक अवस्था का हो और अस्सी वर्ष से कम अवस्था का हो, उसे एकादशी व्रत करना चाहिए। वह यदि मोहवश एकादशी के दिन पका भोजन कर लेता है तो पाप का भागी होता है।
ऋषियों ने सामाजिक स्थिति को देखते हुए संन्यासियों, गृहस्थों, दीक्षित वैष्णवों, सामान्य वैष्णवों (स्मार्तो) के लिए उपवास की अलग-अलग व्यवस्था की है, जिसमें कृष्ण एकादशी को व्रत न करना, केवल पका भोजन न करना या कि अशक्त होने पर केवल रात्रि भोजन की व्यवस्था है। जबकि संन्यासियों के लिए सभी एकादशियों को निराहार, निर्जल व्रत की व्यवस्था है।
आज के संदर्भ में व्यक्ति के अपने कल्याण तथा समाज में उसकी उपादेयता बढ़ाने के लिए मनुष्य को देव प्रबोधिनी एकादशी जैसे महाव्रतों पर संयमित आचरण तथा मितभोजन करके अपने इष्टदेव का स्मरण-पूजन करना ही चाहिए। भले ही वह एकादशी के संबंध में पुराणोक्त व्यवस्था का पालन न कर सके। यह शास्त्रसम्मत विधान है और जो व्यक्ति शास्त्रसम्मत आचरण करता है, वह दीर्घ और सुखी जीवन जीता है।

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