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Saturday, October 24, 2009

सृष्टि और संहार के अधिपति भगवान शिव - डॉ. विनोद शास्त्री

सृष्टि और संहार के अधिपति भगवान शिव भगवान शिव सौम्य आकृति एवं रौद्ररूप दोनों के लिए विख्यात हैं। अन्य देवों से शिव को भिन्न माना गया है। सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति एवं संहार के अधिपति शिव हैं। त्रिदेवों में भगवान शिव संहार के देवता माने गए हैं। शिव अनादि तथा सृष्टि प्रक्रिया के आदिस्रोत हैं और यह काल महाकाल ही ज्योतिषशास्त्र के आधार हैं। शिव का अर्थ यद्यपि कल्याणकारी माना गया है, लेकिन वे हमेशा लय एवं प्रलय दोनों को अपने अधीन किए हुए हैं।

प्रत्येक मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी शिवरात्रि कहलाती है, लेकिन फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी महाशिवरात्रि कही गई है। इस दिन शिवोपासना भुक्ति एवं मुक्ति दोनों देने वाली मानी गई है, क्योंकि इसी दिन अर्धरात्रि के समय भगवान शिव लिंगरूप में प्रकट हुए थे। माघकृष्ण चतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि ।
शिवलिंगतयोद्रूत: कोटिसूर्यसमप्रभ: ।।

भगवान शिव अर्धरात्रि में शिवलिंग रूप में प्रकट हुए थे, इसलिए शिवरात्रि व्रत में अर्धरात्रि में रहने वाली चतुर्दशी ग्रहण करनी चाहिए। कुछ विद्वान प्रदोष व्यापिनी त्रयोदशी विद्धा चतुर्दशी शिवरात्रि व्रत में ग्रहण करते हैं। नारद संहिता में आया है कि जिस तिथि को अर्धरात्रि में फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी हो, उस दिन शिवरात्रि करने से अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है। जिस दिन प्रदोष व अर्धरात्रि में चतुर्दशी हो, वह अति पुण्यदायिनी कही गई है। इस बार 6 मार्च को शिवरात्रि प्रदोष व अर्धरात्रि दोनों में विद्यमान रहेगी।

ईशान संहिता के अनुसार इस दिन ज्योतिर्लिग का प्रादुर्भाव हुआ, जिससे शक्तिस्वरूपा पार्वती ने मानवी सृष्टि का मार्ग प्रशस्त किया। फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को ही महाशिवरात्रि मनाने के पीछे कारण है कि इस दिन क्षीण चंद्रमा के माध्यम से पृथ्वी पर अलौकिक लयात्मक शक्तियां आती हैं, जो जीवनीशक्ति में वृद्धि करती हैं। यद्यपि चतुर्दशी का चंद्रमा क्षीण रहता है, लेकिन शिवस्वरूप महामृत्युंजय दिव्यपुंज महाकाल आसुरी शक्तियों का नाश कर देते हैं। मारक या अनिष्ट की आशंका में महामृत्युंजय शिव की आराधना ग्रहयोगों के आधार पर बताई जाती है। बारह राशियां, बारह ज्योतिर्लिगोंे की आराधना या दर्शन मात्र से सकारात्मक फलदायिनी हो जाती है।

यह काल वसंत ऋतु के वैभव के प्रकाशन का काल है। ऋतु परिवर्तन के साथ मन भी उल्लास व उमंगों से भरा होता है। यही काल कामदेव के विकास का है और कामजनित भावनाओं पर अंकुश भगवद् आराधना से ही संभव हो सकता है। भगवान शिव तो स्वयं काम निहंता हैं, अत: इस समय उनकी आराधना ही सर्वश्रेष्ठ है।

शिव में परस्पर विरोधी भावों का सामंजस्य देखने को मिलता है। शिव के मस्तक पर एक ओर चंद्र है, तो दूसरी ओर महाविषधर सर्प भी उनके गले का हार है। वे अर्धनारीश्वर होते हुए भी कामजित हैं। गृहस्थ होते हुए भी श्मशानवासी, वीतरागी हैं। सौम्य, आशुतोष होते हुए भी भयंकर रुद्र हैं। शिव परिवार भी इससे अछूता नहीं हैं। उनके परिवार में भूत-प्रेत, नंदी, सिंह, सर्प, मयूर व मूषक सभी का समभाव देखने को मिलता है। वे स्वयं द्वंद्वों से रहित सह-अस्तित्व के महान विचार का परिचायक हैं। ऐसे महाकाल शिव की आराधना का महापर्व है शिवरात्रि।

शिवरात्रि व्रत की पारणा चतुर्दशी में ही करनी चाहिए। जो चतुर्दशी में पारणा करता है, वह समस्त तीर्थो के स्नान का फल प्राप्त करता है। जो मनुष्य शिवरात्रि का उपवास नहीं करता, वह जन्म-मरण के चक्र में घूमता रहता है। शिवरात्रि का व्रत करने वाले इस लोक के समस्त भोगों को भोगकर अंत में शिवलोक में जाते हैं।

शिवरात्रि की पूजा रात्रि के चारों प्रहर में करनी चाहिए। शिव को बिल्वपत्र, धतूरे के पुष्प अति प्रिय हैं। अत: पूजन में इनका उपयोग करें। जो इस व्रत को हमेशा करने में असमर्थ है, उन्हें इसे बारह या चौबीस वर्ष करना चाहिए। शिव का त्रिशूल और डमरू की ध्वनि मंगल, गुरु से संबद्ध हैं। चंद्रमा उनके मस्तक पर विराजमान होकर अपनी कांति से अनंताकाश में जटाधारी महामृत्युंजय को प्रसन्न रखता है तो बुधादि ग्रह समभाव में सहायक बनते हैं। सप्तम भाव का कारक शुक्र शिव शक्ति के सम्मिलित प्रयास से प्रजा एवं जीव सृष्टि का कारण बनता है। महामृत्युंजय मंत्र शिव आराधना का महामंत्र है।

Thursday, October 15, 2009

पंच महोत्सव दीपावली पर्व - पं. गौरव शर्मा

धनतेरस
कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी को धनतेरस कहते हैं। इस दिन भगवान धन्वन्तरि ने लोगों के दु:ख और रोगों को हरने के लिए आयुर्वेद की रचना की थी। यह दिन अतिशुभ है। कोई भी नया कार्य इस दिन प्रारंभ करें तो सफलता निश्चित ही मिलती है। यह अबूझ मुहूर्त है। इस दिन सोने-चांदी के आभूषण, बर्तन खरीदने चाहिए।
रूपचौदस
कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को नरक चतुर्दशी या रूपचौदस के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन सूर्योदय से पूर्व सुगंधित तेल से मालिश कर ठंडे जल से स्नान करना चाहिए। इससे मनुष्य स्वस्थ रहता है, जो स्त्रियां इस दिन सजती-संवरती हैं, उनको अगले जन्म में सुयोग्य पति की प्राप्ति होती है। इस दिन तेल में लक्ष्मीजी का और जल में गंगा का वास रहता है। भगवान कृष्ण ने इस दिन नरकासुर का वध किया था। इस दिन अपने घर के बाहर या दक्षिण दिशा में चौमुखी दीपक जलाना चाहिए।
दीपावली
दीपावली को महानिशा और शुभ रात्रि माना गया है। इस रात में सूर्य और चंद्रमा की युति शुक्र की तुला राशि में होती है जो कि भौतिक सुखों और संपन्नता को प्रदान करती हैं। श्रीसूक्त और भविष्यपुराण के अनुसार लक्ष्मीजी का वास बिल्ववृक्ष में माना गया है। दीपावली की रात के तीसरे और चौथे प्रहर में मंत्र और यंत्रों को सिद्ध करके संपन्नता प्राप्त की जा सकती है। लक्ष्मी पूजा स्थिर लग्न में ही करनी चाहिए।
गोवर्धन पूजा
कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को गोवर्धन पूजा और अन्नकूट महोत्सव होता है। सायंकाल मंदिरों में अन्नकूट महोत्सव होता है।
यम द्वितीया
यमद्वितीया भैया दूज के दिन पुरुषों को अपने घर भोजन न कर अपनी बहन के यहां भोजन करना चाहिए। इस दिन यमुना ने भी अपने भाई यमराज को घर पर बुलाकर भोजन कराया था। इस दिन यमुना में कच्च दूध, तिल और गंगा जल चढ़ाने से भाई-बहन के रिश्ते में अटूट प्रेम, मधुर संबंध बना रहता है। अगर बहन भाई को इस दिन भोजन कराती है तो उनके भाई की उम्र बढ़ती है। उन्हें धन-धान्य की प्राप्ति होती है। प्रात:काल चंद्रमा के दर्शन करने चाहिए।
दीपावली की रात्रि को निम्न उपाय करें
>> इस दिन श्रीयंत्र को स्थापित कर गन्ने के रस और अनार के रस से अभिषेक करके लक्ष्मी मंत्रों का जाप करें।
>> दीपावली की रात्रि को पीपल के पत्ते पर दीपक जलाकर नदी में प्रवाहित करें। उसके दूर जाने की प्रतीक्षा करें। इससे आर्थिक संकट दूर होंगे।
>> लक्ष्मी पूजन के समय अपने बहीखातों व कलम-दवात का पूजन करना चाहिए।
>> दीपावली को रात्रि में हात्थाजोड़ी को सिंदूर में भरकर तिजोरी में रखने से धन में वृद्धि होती है।
>> सात गोमती चक्र और काली कोड़ियों को व्यापार वाले स्थान में रखने से निरंतर व्यापार में वृद्धि होती रहती है।
>> घर पर हमेशा बैठी हुई लक्ष्मीजी की और व्यापारिक स्थल पर खड़ी हुई लक्ष्मीजी की प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए।
>> लक्ष्मीजी को गन्ना, अनार, सीताफल अवश्य चढ़ाएं।
>> इस दिन पूजा स्थल में एकाक्षी नारियल की स्थापना करें। यह साक्षात लक्ष्मी का ही स्वरूप माना गया है। जिस घर में एकाक्षी नारियल की पूजा होती हो, वहां लक्ष्मी का स्थाई वास होता है।
>> दीपावली की रात्रि में श्रीसूक्त, कनकधारा स्तोत्र एवं गोपाल सहस्रनाम का पाठ करने से लक्ष्मी की कृपा बनी रहती है।

Sunday, October 11, 2009

समर्पण एवं भक्ति का मास - कार्तिक (पं. प्रहलाद कुमार)

का र्तिक मास भगवान विष्णु के प्रति हमारे समर्पण, निष्ठा एवं भक्ति का मास है। स्कन्द पुराण में उल्लेख है कि -
मासानां कार्तिक: श्रेष्ठो देवानां मधुसूदन:। र्तीथ नारायणाख्यं हि त्रितयं दुर्लभं कलौ॥
अर्थात - भगवान विष्णु के सदृश्य ही कार्तिक मास श्रेष्ठ है। इस मास का महत्व पद्म पुराण, स्कन्द पुराण एवं अन्य पुराणों में विस्तार से लिखा गया है। इस माह में प्राय: सूर्य तुला राशि में रहते है और शीतकाल रहता है। अत: इस माह में पुरुष और स्त्रियां सूर्योदय से पूर्व ब्रrा मुहूर्त में उठकर जलाशय, नदी, तालाब आदि में स्नान कर भगवान राधा दमोदर की पूजा अर्चना करते है। शास्त्रों में कार्तिक मास के व्रत को मोक्ष प्रदान करने वाला मास माना गया है। इस समय के किए गए व्रत उपवास से धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति बताई गई है।
कार्तिक मास के कर्म
व्रत एवं स्नान कार्तिक मास का स्नान व्रत करने वाले लोगों को अनेक प्रकार से संयम, नियम का पालन करना पड़ता है। संपूर्ण माह में व्रत और उपवास रखकर राधा दमोदर की पूजा की जाती है। इसमें व्रतोपवास करने से रोगों का विनाश होता है और प्रतिरोधक शक्ति विकसित होती है। सद्बुद्धि प्राप्त करके मनुष्य दीघायरु एवं लक्ष्मी प्राप्त करता है।
दीपदान कार्तिक मास में व्रत उपवास रखने वाले साधक को प्रतिदिन दीप का दान करना चाहिए। तुलसी सेवा तुलसी का पौधा लगाना, तुलसी को जल सिंचन और तुलसी का सेवना निर्दिष्ट है। आयुर्वेद शास्त्र में भी तुलसी को एंटीबायटिक कहा गया है और इसके द्वारा पर्यावरण की शुद्धि होती है। भगवान को तुलसी पत्र और मंजरी अर्पण करने के साथ स्वयं भी तुलसी सेवन करने से व्यक्ति रोगों से मुक्ति प्राप्त करता है। भगवान विष्णु को तुलसी अति प्रिय है।
भूमि पर शयन शास्त्र में उल्लेख है कि कार्तिक मास का व्रत करने वाले व्रती को भूमि पर शयन करना चाहिए। इसके कारण एक ओर जहां मनुष्य शरीर में पृथ्वी तत्व की वृद्धि होती है वहीं भगवान के प्रति आस्थावान होकर व्यक्ति भय से मुक्त होता है।
ब्रrाचर्य का पालन तथा आहार पर नियंत्रण कार्तिक मास के नियमों के अंर्तगत ब्रrाचर्य का पालन करना नितांत आवश्यक है। साथ ही उड़द, मूंग, चना, मटर आदि द्वि-दल, दलहन एवं तेल आदि का परित्याग करना निर्देशित है। भगवान नाम का संकीर्तन करना और भगवान विष्णु की कथाओं का श्रवण करना श्रीमद्भगवदगीता, भागवत पुराण आदि का अध्ययन या श्रवण करना सत्य, अहिंसा पर चलकर धर्माचरण करना भी निर्देशित है। इस माह में पीपल, तुलसी, आंवला, गौ-पूजा, स्नान और गोवर्धन पूजा आदि का प्रावधान किया गया है।
जिसके कारण व्यक्ति इस लोक में धन ऐश्वर्य, बुद्धि, बल और यश प्राप्त करके अंत में मोक्ष प्राप्त करें। कार्तिक मास में काशी में निवास करके गंगा में स्नान करने का विशेष महत्व है। स्कंद पुराण में उल्लेख है कि व्रती को गंगा, विष्णु, शिव तथा सूर्य का स्मरण करके जल में प्रवेश कर नाभि पर्यंत जल में खड़े होकर विधिपूर्वक स्नान करना चाहिए। आंवला और काला तिल शरीर पर मलना चाहिए किंतु संन्यासियों को तुलसी के पौधें की जड़ में लगी हुई मृत्तिका लगाकार स्नान करना चाहिए। व्रत की समाप्ति पर पूर्णिमा के दिन भगवान विष्णु और लक्ष्मी की पूजा करके बांस की टोकरी में अन्न और कांसे के पात्र में पुएं रखकर वस्त्र, स्वर्ण आदि का दान करना चाहिए।
कार्तिक मास के महत्वपूर्ण व्रतोत्सव
करवा चौथ, अहोई अष्टमी, गौवत्स द्वादशी, धन तेरस, गोत्रिरात्र व्रत, नरक चतरुदशी, दीपावली, लक्ष्मी पूजन, गोवर्धन पूजा, अन्नकूट, यमद्वितीया, सूर्य षष्ठी, गोपाष्टमी, अक्षय नवमी, देवोत्थापनी एकादशी, तुलसी विवाह, बैंकुंठ चतुर्दशी, विष्णु पंचक व्रत तथा कार्तिक पूर्णिमा। स्पष्ट है कि संपूर्ण कार्तिक मास में अनके महत्वपूर्ण व्रत एवं त्योहार संपन्न होते हैं। कार्तिक स्नान करने वाले व्रर्ती को प्रत्येक व्रत दिवस पर शास्त्र निर्धारित पद्धतियों के साथ व्रत का अनुशीलन करना चाहिये, जिससे व्रत के सहज फल प्राप्त होते हैं।

आप कैसी लक्ष्मी चाहते हैं - श्रीमती सविता

लक्ष्मी दो प्रकार से आती हैं एक गरुड़ वाहनी जो भगवान विष्णु के साथ आती हैं। यह सद्कर्म से अर्जित की गई लक्ष्मी के रूप में आती हैं। इस लक्ष्मी के आने पर व्यक्ति के कार्य, व्यवहार, आचरण में कहीं कोई कमी नहीं झलकती है बल्कि वह विनम्रता से संपन्न होकर समाजसेवी, परोपकारी, दरिद्र नारायण की सेवा करने वाला होता है। उसकी लोकप्रियता समाज-देश में बढ़ती ही चली जाती है। इसके विपरीत उल्लू वाहिनी लक्ष्मी का आगमन अनैतिक कर्म के द्वारा होता है।
उसके आने के साथ ही उल्लू का आगमन भी घर में हो जाता है। फलस्वरूप उस व्यक्ति में तामसी प्रवृत्ति वाले दुगरुण भी आते हैं। जिस प्रकार उल्लू रात में जागता है एवं दिन में सोता है, ठीक उसी प्रकार वह भी देर से उठने एवं देर रात तक कार्य करने में प्रवृत्त हो जाता है। ऐसे जातकों की संतान भी संस्कार विहीन हो जाती है। वैसे भी शास्त्रों में कहा गया है कि अनैतिकता से प्राप्त की गई सफलता व समृद्धि लंबे समय तक साथ नहीं देती है।
लक्ष्मी की परिभाषा में आमजन केवल धन को ही मानते हैं जबकि लक्ष्मी आठ प्रकार की होती हैं - आद्य लक्ष्मी, विद्या लक्ष्मी, सौभाग्य लक्ष्मी, अमृत लक्ष्मी, काम लक्ष्मी, सत्य लक्ष्मी, भोग लक्ष्मी, योग लक्ष्मी। जैसा कि नाम से ही अर्थ स्पष्ट हो रहा है। ये सभी लक्षण लक्ष्मीवान के होते हैं अर्थात उपरोक्त में से एक भी लक्ष्मी व्यक्ति को समर्थ एवं सुखी बना सकती है।
अत: व्यक्ति को धन की चाह के बजाय आदर्श परिवार की ओर उन्मुख होना चाहिए ताकि जीवन में सभी सुख मिल सकें और वह उनका उपभोग भी कर सके। लक्ष्मी जी ने स्वयं कहा है - सत्य, दान, व्रत, तप, धर्म, पराक्रमी, सरल व्यक्ति के यहां मैं निवास करती हूं तथा जहां आलस्य, निद्रा, असंतोष, अधर्मी, संतान का पालन विधिवत न हो रहा हो, उस स्थान को मैं छोड़ देती हूं।
लक्ष्मी पानी की भांति चंचल होती हैं। फिर भी लक्ष्मी को स्थायी रूप से रोकने के लिए स्थायी प्रयास प्रतिवर्ष करने पड़ते हैं। दीपावली के दिन लक्ष्मीजी की पूजा विधि-विधान से करनी चाहिए। शुभ मुहुर्त में एक कंबल के आसन पर बैठ कर सम्मुख पाटे पर पीले या लाल वस्त्र पर पीले चावल रखकर उस पर श्रीयंत्र की स्थापना करें। दीपक, अगरबत्ती, धूपबत्ती जलाएं, मन में श्रद्धापूर्वक मां लक्ष्मी का ध्यान करें।
आह्वान हेतु चावल चढ़ाएं, फिर श्रीयंत्र को जल से उसके बाद पंचामृत से, पुन: जल से स्नान कराएं। पुन: पटिए पर स्थापित करें। केसर, चंदन, कंकू, अबीर, गुलाल, हल्दी, मेहंदी, सिंदूर, अक्षत, फूल, वस्त्र, सेंट, दूर्वा, धूप, दीप, बेसन की मिठाई, फल, सूखा मेवा, लोंग, इलायची, दक्षिणा भेंट करें। पश्चात निम्न मंत्र की तीन माला का जाप करें।
ú यक्षाय कुबेराय वैश्रवणाय धन धान्याधिपतये धन धान्य मे समृद्धि देहि दापय स्वाहा: जाप पूर्ण होने पर जल छोड़ें, दीपक, कपूर से आरती करें। आरती लें, प्रणाम करें एवं प्रार्थना करें कि हे माता आप कुबेर के खजाने ऋषि-सिद्धि सहित यहां विराजमान रहें। श्रीयंत्र को स्नान कराया हुआ जल अपने घर-कार्यालय और प्रतिष्ठान में छिड़कें।