मंत्रशास्त्र के भेद
मंत्रशास्त्र का गूढ़ ज्ञान दो रूपों में मिलता है— लिखित मंत्रशास्त्र के ग्रंथों के रूप में और गुरुओं के परंपरागत मौखिक उपदेश के रूप में। यह शास्त्र साधन, साधना एवं साध्य के बारे में समग्र जानकारी देकर साधकों की सर्वाधिक सहायता करता है। साधक की पात्रता, उसका अधिकार, साधन का चयन, साधना का मार्ग, उसका विधि-विधान एवं उसका परिणाम, इन सबका वर्णन इस शास्त्र में है।
मंत्रशास्त्र की विशेषताएं
मंत्रशास्त्र एक गूढ़ ज्ञान है, लेकिन सुपात्र या सुयोग्य साधकों के लिए यह उतना दुरूह नहीं है, क्योंकि इस शास्त्र में मंत्रसाधना का प्रत्येक मार्ग सुनिश्चित माना जाता है। इस स्थिति में साधक के सामने न तो कोई असमंजस रहता है और न ही किसी प्रकार की असुविधा। यह एक ओर प्राचीन अनुभवों को अपनाता है, तो दूसरी ओर वर्तमान एवं भविष्य की परिस्थितियों के साथ सामंजस्य बनाता है।
कई मंत्र हैं साधना के आधार
मंत्र शास्त्र जीवन के समस्त पहलुओं को अपने अंदर समेटता है। इसकी भूमिका एक ऐसे मार्ग ढूंढ़ने वाले पथिक जैसी है, जो निर्जन एवं गहन जंगल में अपना रास्ता बनाता चल रहा है। इस सबका प्रमुख कारण यह है कि समय के परिवर्तन के साथ न केवल परिस्थितियों में ही परिवर्तन होता है, बल्कि मानव मात्र की क्षमता एवं मन:स्थिति में भी अंतर आ जाता है, इसीलिए हमारे महर्षियों ने वैदिक मंत्रों के रहते हुए भी समय एवं परिस्थितियों के अनुसार ‘तांत्रिक मंत्रों’ को और नई परिस्थितियों में ‘साबर मंत्रों’ को साधना का आधार बनाया। यदि शास्त्र एवं परंपरा में ऐसा परिवर्तन स्वीकार्य न होता तो प्रत्येक देवता का एक ही मंत्र, एक ही संप्रदाय, एक ही स्त्रोत एवं साधना की एक ही विधि होती।
मंत्रशास्त्र में अनेक ग्रंथ, अनेक संप्रदाय, एक देवता के अनेक मंत्र और उसकी स्तुति के लिए अनेक स्त्रोतों का होना इस बात का साक्ष्य है कि मंत्रसाधना में समय एवं परिस्थिति के अनुसार साधक को परिवर्तन एवं नए चयन की स्वतंत्रता है।
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