देवपूजन भारतीय जनजीवन की खास विशिष्टता है। यह इहलोक और परलोक की साधना का महत्वपूर्ण सोपान है। इसका जीवन में महत्व इसलिए भी है कि इससे इष्ट प्रयोजन की सिद्धि होती है।
अपने-अपने आराध्य की पूजा, उपासना करने से मनोबल बढ़ता है, सोचे-विचारे कार्यो की पूर्ति होती है। इसलिए आर्त, अर्थार्ती, ज्ञानी और जिज्ञासु- चारों प्रकार के लोगों द्वारा देवाराधना की परंपरा रही है। स्कंदपुराण के प्रभासखंड में एक नियम उल्लेखित है कि देवपूजन में साधक को हमेशा उत्तराभिमुख होना चाहिए और पितरों का पूजन दक्षिणमुखी होना चाहिए-
उदङ्मुखस्तु देवनां पितृणां दक्षिणामुख:।
उत्तर को उदिच्य और उदक दिशा भी कहा गया है। आराधना में उत्तरमार्ग का महत्व इस अर्थ में भी है कि यह देवमार्ग है, जैसा कि गीता में भी कहा गया है और भीष्म ने भी उत्तरायण में ही प्राणांत करने का निश्चय किया था।
उत्तराभिमुखी होकर पूजन करने से चित्त की शांति तो होती ही है, अर्थसिद्धि के साथ-साथ अन्य इच्छित कार्यो में सफलता भी मिलती है। देवाराधना में देवप्रिय वस्तुओं का चयन जरूर करना चाहिए और त्रुटि न रहे इसका ध्यान रखें। इसी प्रकार देवपूजन में सदा पवित्रता का ध्यान रखना चाहिए। कभी बिना धुला वस्त्र धारण नहीं करे क्योंकि देवाराधना में मन के साथ ही शारीरिक शुद्धि का भी महत्व है, इसके अभाव में साधना और आराधना के मार्ग से पतन हो जाता है।
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