भगवान गणेश विघ्न विनाशक माने गए हैं। वास्तुपूजन के अवसर पर गणेश को प्रथम न्योता और पूजा जाता है। जिस घर में गणेश की पूजा होती है, वहां समृद्धि की सिद्धि होती है और लाभ भी प्राप्त होता है।
गणेश जी की स्थापना अपने भवन के द्वार के ऊपर और ईशान कोण में पूजा जा सकता है किंतु गणेश जी को कभी तुलसी नहीं चढ़ाएं। गणेश चतुर्थी पर विनायक की प्रतिमा पर सिंदूर चढ़ाने से सुख मिलता है और चमकीला पन्ना चढ़ाने पर पूजक को आरोग्य मिलता है।
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>> यदि भवन में द्वारवेध हो तो वहां रहने वालों में उच्चटन होता है। भवन के द्वार के सामने वृक्ष, मंदिर, स्तंभ आदि के होने पर द्वारवेध माना जाता है। ऐसे में भवन के मुख्य द्वार पर गणोशजी की बैठी हुई प्रतिमा लगानी चाहिए किंतु उसका आकार 11 अंगुल से अधिक नहीं होना चाहिए।
>> जिस रविवार को पुष्य नक्षत्र पड़े, तब श्वेतार्क या सफेद मंदार की जड़ के गणेश की स्थापना करनी चाहिए। इसे सर्वार्थ सिद्धिकारक कहा गया है। इससे पूर्व ही गणेश को अपने यहां रिद्धि-सिद्धि सहित पदार्पण के लिए निमंत्रण दे आना चाहिए और दूसरे दिन, रवि-पुष्य योग में लाकर घर के ईशान कोण में स्थापना करनी चाहिए।
>> घर में पूजा के लिए गणेश जी की शयन या बैठी मुद्रा में हो तो अधिक उपयोगी होती है। यदि कला या अन्य शिक्षा के प्रयोजन से पूजन करना हो तो नृत्य गणेश की प्रतिमा या तस्वीर का पूजन लाभकारी है।
>> संयोग से यदि श्वेतार्क की जड़ मिल जाए तो रवि-पुष्य योग में प्रतिमा बनवाएं और पूजन कर अपने यहां लाकर विराजित करें। गणोश की प्रतिमा का मुख नैर्ऋत्य मुखी हो तो इष्टलाभ देती है, वायव्य मुखी होने पर संपदा का क्षरण, ईशान मुखी हो तो ध्यान भंग और आग्नेय मुखी होने पर आहार का संकट खड़ा कर सकती है।
>> पूजा के लिए गणेश जी की एक ही प्रतिमा हो। गणोश प्रतिमा के पास अन्य कोई गणोश प्रतिमा नहीं रखें।
>> गणेश को रोजाना दूर्वा दल अर्पित करने से इष्टलाभ की प्राप्ति होती है। दूर्वा चढ़ाकर समृद्धि की कामना से ऊं गं गणपतये नम: का पाठ लाभकारी माना जाता है। वैसे भी गणपति विघ्ननाशक तो माने ही गए हैं।

कर्मप्रधान जीवन में कर्म करते हुए अगर भाग्य का भी साथ मिल जाए तो व्यक्ति ऊंचाइयों के शिखर पर पहुंच जाता है। कुछ इसी तरह का भाग्य उद्योगपति रतन टाटा का है। इनकी जन्मकुंडली में ४६ शुभ योग हैं।
हमारे जीवन में चित्रों का बड़ा महत्व है। पूर्वकाल में घर की दीवारों पर फ्रेस्को पेंटिंग की जाती थी। हाथ से बनाए गए चित्रों और मांडनों को चिपकाया जाता था। मांगलिक, शुभ कार्यो में देवचित्रों को प्रधानता से प्रयोग में लाया जाता था। विवाह, यज्ञोपवीत, तीर्थाटन से वापसी जैसे प्रसंगों पर चित्रकारों को न्यौतकर चित्रांकन कराया जाता था। ये चित्र घर में मंगल-मांगल्य की सृष्टि करते थे।
का जिक्र आता है। इसके अनुसार दसवें घर में शनि की मकर राशि आती है और इस प्रकार इस घर का सीधा संबंध शनि से है। यदि दसवें भाव या घर में दो या दो से अधिक ऐसे ग्रह हों, जो आपस में शत्रु हों या नीच राशि के ग्रहों से दसवां भाव खराब हो तो कुंडली के सभी ग्रह अंधे की तरह फल देने वाले होते हैं अर्थात बहुत हद तक उस कुंडली में शुभ ग्रहों का भी फल निष्फल रहता है। इस प्रकार के योग में व्यक्ति जीवन में कितना भी संघर्ष और मेहनत करें, उसे पूर्ण प्रतिफल नहीं मिल पाता। कार्यक्षेत्र में उतार-चढ़ाव रहते हैं। दसवां घर शनि का पक्का स्थान है और इसका हमारे कर्मक्षेत्र और जीवनयापन के साधन से सीधा संबंध है। इस घर में यदि एक से ज्यादा शत्रु ग्रह हों तो ये नौकरी या व्यवसाय में स्थिरता नहीं रहने देंगे। उदाहरण के लिए दसवें घर में यदि सूर्य, केतु और शुक्र में कोई दो या तीनों ग्रह आ जाएं तो इस प्रकार की कुंडली अंधे ग्रहों का टेवा कहलाएगी।
दोनों मास को धन-धान्य के भंडार को भरा रखने वाला बताया गया है। स्थायी आवास बनवाने में मास विचार को अपरिहार्य किया गया है। पूर्वकाल में मार्गशीर्ष या अगहन मास को गृहारंभ के लिए शुभ कहा गया, वराहमिहिर ने 580 ई. में पहली बार पौष को भी गृहारंभ के लिए प्रशस्त बताया था।
शरीर में यूरिक अम्ल का संतुलन बिगड़ जाने से घुटनों व जोड़ों में श्वेत पदार्थ जमकर उन्हें निष्क्रिय बना देता है। इससे रोगी उठने-बैठने व चलने-फिरने में दर्द का अनुभव या असमर्थता प्रकट करता है। 45 वर्ष की आयु के बाद प्राय: यह रोग सक्रिय होता है। यह बुढ़ापे का एक कष्टकारी रोग है। इसे आमवात भी कहते हैं।
आयुर्वेद आयु संबंधी विज्ञान है। नवजात शिशु की आयु जानने के लिए महर्षि अग्निवेश ने शिशु के शारीरिक अंगों की परीक्षा का विधान बतलाया है, जिससे उनकी आयु का आकलन किया जा सकता है।
उल्टी आदि लक्षण प्रकट होते हैं। पानी ज्यादा पीकर व खान-पान में परहेज रखकर इस रोग पर नियंत्रण किया जा सकता है।
नेपच्यून और चंद्रमा है। सात का अंक गुप्त एवं वैज्ञानिक प्रभाव से परिपूर्ण है। सातवां दिन सृष्टि की रचना के उपरांत विश्राम का दिन भी माना गया है। यह अंक सात दिन, सात रंग, सात मुख्य ग्रह, विवाह के अवसर पर सात फेरे से संबंधित है। बाइबल में भी सात को महत्वपूर्ण अंक माना गया है।
ज्योतिष के अनुसार यदि किसी व्यक्ति का किसी भी अंग्रेजी महीने की २, ११, २0, २९ तारीख को जन्म हुआ हो तो उसका जन्म मूलांक ‘२’ माना जाता है। इस अंक का स्वामी चंद्रमा है। वैज्ञानिक दृष्टि से यह शीतलता एवं कोमलता का प्रतीक है।
इसके पंजे में भाग्य को अपने पास रखने की ताकत है। चीनी व्यापारी इसे अपने व्यापार स्थल पर जरूर रखते हैं, जिससे खुशहाली आती है और भाग्य आपका साथ देता है।
मनुष्य तीन ऋणों को लेकर जन्म लेता है - देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण। देवार्चन से देव ऋण, अध्ययन से ऋषि ऋण एवं पुत्रोत्पादन व श्राद्ध कर्म से पितृ ऋण से मुक्ति मिलती है। श्रद्धा से ही श्राद्ध है - श्रद्धया दीयते यत्र तच््रछाद्धं परिचक्षते। श्रद्धापूर्वक पितरों के लिए ब्राrाण भोजन, तिल, जल आदि से तर्पण एवं दान करने से पितृ ऋण से मुक्ति और पितरों की प्रसन्नता मिलती है।
मूंगा पहनने का प्रचलन सदियों पुराना है। यह रत्न खनिज न होकर एक कार्बनिक पदार्थ है। इसकी उत्पत्ति छोटे-छोटे समुद्री बहुपाद प्राणी कोरिलिकम से निकलने वाले द्रव्य से होती है। यह अपारदर्शकता के साथ सभी रंगों में आता है, किंतु भारतीय ज्योतिष में लाल व सफेद मूंगा का महत्व है। इसकी सतह चिकनी होती है। इसका सर्वाधिक उपयोग राशि रत्न, आभूषण एवं सुशोभित वस्तुओं में होता है। सामान्यत: इसके ऊपर लकड़ी की सतह पर पड़ने वाली आकृति दिखती है, इसे इंग्लिश में कोरल व संस्कृत में प्रवालक नाम से जाना जाता है।
माणिक अत्यंत मूल्यवान रत्न माना जाता है। इसमें रंग की एकरूपता तथा अच्छी पारदर्शिता प्राय: दुर्लभ है। यह कुरुविंद समूह का रत्न है। यह पारभासक से पारदर्शकता के साथ लाल रंग में कत्थई-सी झांई लिए हुए होता है। इसका श्रेष्ठ रंग ‘कपोत लहुरंग’ है। इस रत्न में तिड़ालाक्ष प्रभाव व ताराछटा प्रभाव दुर्लभ है।
ज्वर के कई भेद, उपभेद हैं। यह बीमारी सामान्य होती है किंतु परिणाम कई बार भयावह हो जाते हैं। सूर्य, चंद्र, बुध व शनि ज्वर के प्रमुख कारक ग्रह हैं। नीच के सूर्य व नीच के ही चंद्रमा की महादशा में या केतु की महादशा में बुध की अंतरदशा अथवा शनि की महादशा में राहु की अंतरदशा में बुखार भयानक रूप ले लेता है। आयुर्वेद ने ज्वर को कई तरह से वर्गीकृत किया है।
मंगल प्रसंगों के अवसर पर पूजा स्थान तथा दरवाजे की चौखट और प्रमुख दरवाजे के आसपास स्वस्तिक चिह्न् बनाने की परंपरा है। वे स्वस्तिक कतई परिणाम नहीं देते, जिनका संबंध प्लास्टिक, लोहा, स्टील या लकड़ी से हो।