शनि की दृष्टि कोपकारी होती है। ब्रहामवैवर्त पुराण की एक कथा में शनि की दृष्टि से पार्वती के पुत्र का सिर कटकर अलग हो जाने की कथा सामने आई है। वहां शनि को अपनी कुदृष्टि के लिए पार्वती ने कोसा, हालांकि पहले उन्होंने ही अपने पुत्र पर निगाह डालने के लिए शनि देव को प्रेरित भी किया था। बाद में भगवान शंकर ने कटे शीश पर गज का मुख आरोपित किया था। अग्निपुराण में मंत्रौषध नामक 142वें अध्याय में शनिचक्र का वर्णन आया है:
शनिचक्रं प्रवक्ष्यामि तस्य दृष्टिं परित्यजेत। राशिस्थ: सप्तमे दृष्टिश्चतुर्दशशते अर्धिका॥ एकद्वयष्टद्वादशम: पाददृष्टिश्च तžयजेत्। दिनाधिप: प्रहरभाक्शेषा यामार्धभागिन:॥
इसमें कहा गया है कि हमेशा शनि की दृष्टि को त्यागकर काम करना चाहिए। किसी भी प्रकार की यात्रा, परीक्षा, साक्षात्कार, मुकदमा और अन्य किसी भी शुभ कार्य के लिए यदि प्रस्थान करना हो तो ग्रह स्थिति के अनुसार यदि शनि की दृष्टि पड़ती हो तो उसे टाल देना चाहिए। किसी महीने में शनि जिस राशि पर रहता है, उस राशि से संबंधित दिन के दूसरे, सातवें, आठवें और दसवें भाग पर अपनी निगाह डालता है।
ऐसे में अपेक्षा से अधिक सावधानी बरतने की जरूरत होती है। इसी तरह दिन के चौथे एवं ग्यारहवें भाग पर आधी नजर रहती है। प्रयास करें कि शनि की वक्र दृष्टि से अपने को बचाएं। दिन के अधिपति नक्षत्र उस दिन के तीन घंटों को प्रभावित करते हैं और शेष नक्षत्र दिन के आधे-आधे याम में अपना प्रभाव दिखाते हैं। मुकदमा, युद्ध आदि के हालात में शनि से प्रभावित होने वाले दिन के अंश को बचा लेना ही उत्तम है।
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